बिहार चुनाव के जो नतीजे सामने आए हैं उसमें एक सवाल का जवाब महागठबंधन के साथी खोजने चलेंगे तो सामने दूसरा सवाल आ जाएगा। साथ ही महागठबंधन में शामिल दलों के प्रदर्शन को लेकर भी बड़ा सवाल है। कांग्रेस का प्रदर्शन एक बार फिर बिहार में काफी निराशाजनक रहा।
बिहार चुनाव के नतीजे शुक्रवार सामने आए और इन नतीजों ने तमाम अनुमानों को ध्वस्त कर दिया। बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आ रही है। अब तक के आए नतीजों में एनडीए का आंकड़ा 200 के पार जाता दिख रहा है। एनडीए को ऐतिहासिक जीत मिली है वहीं महागठबंधन का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है। एनडीए के पक्ष में ऐसी आंधी चली है कि महागठबंधन की सीटों का आंकड़ा 30 के नीचे जाता दिख रहा है। महागठबंधन में शामिल सभी दलों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। कांग्रेस की सीटें 5 से भी कम हैं तो मुकेश सहनी की पार्टी का खाता खुलता भी नहीं दिख रहा है।
नतीजों पर गौर करें तो बिहार में लगातार दूसरी बार कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस के साथ लड़कर सहयोगी दलों को फायदा है या नहीं और दूसरी तरफ यह भी प्रश्न है कि कांग्रेस को भी इसका क्या फायदा। बिहार के बाद बंगाल और यूपी का चुनाव है। बंगाल में भले ही ममता बनर्जी अकेले चुनाव लड़ती हैं लेकिन समय-समय पर कांग्रेस के साथ गठबंधन की चर्चा रहती है। वहीं देश के सबसे बड़े सियासी राज्य उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन है।
बिहार में साथ लड़कर महागठबंधन को क्या मिला
बिहार चुनाव रिजल्ट को देखकर एक सवाल जो मन में आता है कि महागठबंधन में शामिल दलों को आखिर क्या मिला। बिहार की राजनीति को थोड़ा बहुत भी समझने वाले ऐसा कह सकते हैं कि अलग-अलग भी लड़े होते तो नतीजे इससे बुरे तो नहीं होते। लगातार दूसरा चुनाव है बिहार में जब कांग्रेस का प्रदर्शन और भी खराब हुआ है। आखिरी नतीजे आने तक कहीं संख्या कांग्रेस की सबसे निचले स्तर पर न पहुंच जाए। नतीजों के बाद बिहार की राजनीति को करीब से देखने वालों का कहना है कि अलग-अलग सीटों पर ये दल लड़े होते तो नतीजे जो भी होते कम से कम कार्यकर्ताओं को मनोबल तो बढ़ा रहता। पिछले बिहार चुनाव में कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन को लेकर आरजेडी के भीतर सवाल खड़े हुए थे और इस बार भी बहुत कुछ नहीं बदला है। हालांकि इस बार आरजेडी भी उस स्थिति में नहीं कि कांग्रेस पर दोष मढ़ सके।
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