शुक्राचार्य, महर्षि भृगु और हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या के पुत्र थे। कथा के अनुसार, उनका जन्म शुक्रवार के दिन हुआ था, इसलिए उनका नाम शुक्र रखा। आगे चलकर वह दैत्यों के गुरु बन गए। शुक्रदेव, महादेव से प्राप्त वरदान के कारण मृत असुरों को पुनः जीवित कर देते थे।
विष्णु जी ने लिया वामन अवतार
कथा के अनुसार, एक बार दैत्यराज राजा बलि ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेश पर एक महान यज्ञ का आयोजन किया। तब वामन भगवान, जो प्रभु श्रीहरि का ही अवतार वह भी इस यज्ञ में पहुंचे। तब उन्होंने राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांग ली।
राजा बलि ने सोचा कि तीन पग धरती कौन-सी बड़ी बात है। तब शुक्राचार्य ने राजा बलि को सावधान भी किया कि यह दान न दे, क्योंकि यह ब्रह्माण, भगवान विष्णु का स्वरूप है। लेकिन राजा बलि दानवीर थे, इसलिए अपने गुरु की बात न मानते हुए उन्होंने संकल्प के लिए अपना कमंडल हाथ में ले लिया।
कमंडल में बैठ गए शुक्राचार्य
शुक्राचार्य यह जानते थे कि यह कोई आम ब्राह्मण नहीं है, बल्कि भगवान विष्णु के अवतार हैं। इसलिए वह कमंडल के मुख में बैठ गए। जिस कारण जल बाहर नहीं आया। वामन भगवान शुक्राचार्य की इस चाल को समझ गए और उन्होंने कहा कि लगता है कमंडल में कुछ फंस गया है, जिस कारण जल बाहर नहीं आ रहा।
यह कहते हुए वामन जी ने कमंडल के मुख में एक सींक डाल दी। यह सीक शुक्राचार्य की एक आंख में जा लगी, जिससे उनकी एक आंख फूट गई। तभी से उनका एकाक्ष कहा जाने लगे।
नहीं मानी गुरु की बात
वामन भगवान ने दो पग धरती में पूरी धरती और ब्रह्माण माप दिया। तीसरा पग राजा बलि ने अपने मस्तक पर रखवाया। उसकी दानवीरता को देखकर भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और उन्हें पाताल का राजा बना दिया। लेकिन अपने गुरु की बात न मानने के कारण बलि को अपना सारा राज्य गवाना पड़ा था।